दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास के संयोजन में प्रख्यात हिंदी साहित्यकार ‘ प्रोफेसर डॉ. दिनेश चमोला ‘शैलेश’का सृजन-मूल्यांकन’* विषय पर आयोजित पाक्षिक व्याख्यानमाला का छठा ऑनलाइन व्याख्यान।

उनके दोहा संग्रह ‘कान्हा की बांसुरी’ पर केंद्रित रहा । संयोजक रजिस्ट्रार, प्रो. मंजुनाथ अंबिग के स्वगत भाषण के उपरांत रायपुर, छत्तीसगढ़ के प्रमुख हिंदी सेवी विद्वान डॉ.सुधीर शर्मा ने प्रो. चमोला द्वारा साढ़े चार दशकों से की जा रही अनवरत हिंदी सेवा की मुक्त कंठ से प्रशंसा की, वहीं उनकी दोहा सतसई ‘कान्हा की बांसुरी’ की समीक्षा करते हुए शैलीगत बनावट व बुनावट, भाषा शैली, छंद व विषय की कसावट, मार्मिकता, सटीक चित्रण में उन्हें तुलसीदास, रहीम व बिहारी के परंपरा का दोहाकार बताते हुए ‘दोहा सम्राट ’ जैसी व्यंजना देकर उनके रचनाशिल्प की सराहना की । विशिष्ट अतिथि के रूप में कोचीन के प्रख्यात मलयाली व हिंदी समालोचक, प्रोफेसर ए. अरविंदाक्षन , पूर्व प्रति कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय , वर्धा (महाराष्ट्र) रहे । प्रो. चमोला की दोहा सतसई की समीक्षा करते हुए उन्होंने कहा की प्रोफेसर चमोला के पास एक उत्कृष्ट कवि मन के साथ साथ अत्यंत पारखी लोक मन भी है । अपनी संवेदना को वे लोक पक्ष से अलंकृत कर अत्यधिक प्रभावी बनाते हैं । मां, पर्यावरण, गाय, नई सदी आदि रचनाओं में एक जिंदा मनुष्य तभी वे देख पाते हैं । मां के प्रति उनका अनन्य प्रेम व आत्मीयता का बंधन है; समर्पण है, मां के माध्यम कवि मन में निहित भव्यता को वे निरूपित कर पाते हैं । पर्यावरण पर लिखते हैं, एक तरफ मां, गांव और Eco sustainability उनकी रचनाओं की प्राण हैं। अपनी रचनाओं में पर्यावरण चिंता और चिंतन के साथ-साथ चिंता का यह लोकोन्मुखी स्वर उनकी कविता व दोहों अत्यंत प्रभावी रूप से मुखर होता है । वह प्राकृतिक दोहा छंद को सुरक्षित रखते हुए जिस प्रकार जिस दक्षता के साथ उसकी निरूपित करते हैं, वह बेजोड़ है । कान्हा की बांसुरी हमारे अवचेतन में बसी हुई है । उनके छंदों में प्राचीनता के साथ-साथ समकालीनता का बोध थी अंत तक मुखरित होता है । इस कवि के पास एक प्राचीन संवेदनात्मक पक्ष के साथ-साथ प्रभावी एक अधुनातन दृष्टि भी है जो कविता की लोक परंपरा को शास्वतत्ता प्रदान करती है । उनकी लोकोन्मुखी रचनात्मकता की काव्य आत्मा पर विश्वविद्यालयों को अभी और नई दृष्टि से शोध करने की आवश्यकता है । अपने अध्यक्षीय की उद्बोधन में, तीर्थंकर विश्वविद्यालय एवं चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी (हरियाणा) के पू.कुलपति प्रोफेसर राज कुमार मित्तल ने प्रो. चमोला की बृहद साहित्य साधना की प्रशंसा करते हुए कहा कि साहित्य के अध्येता विद्वान, विज्ञान, पर्यावरण, नवाचार और पारिस्थितिकी जैसे विषयों को दोहों के माध्यम से प्रभावित शैली में अभिव्यक्त करता है, यह निश्चित रूप से उनकी विलक्षण साहित्त्यिक प्रतिभा का ही परिचायक है । हिंदी साहित्य को प्रो चमोला जैसे बहुआयामी साहित्यकार से अनेकों अपेक्षाएं हैं । उनका वृहद अनुभवों का संसार अवश्य हिंदी साहित्य की समृद्धि का परिचायक सिद्ध होगा। अतः प्रोफेसर चमोला जैसे बहुआयामी साहित्यकार से हिंदी जगत को अशेष महत्वाकांक्षाएं हैं। इसके उपरांत प्रोफेसर अंबिग ने देश-विदेश के अनेकों विद्वानों, शोधार्थियों,विद्यार्थियों का भी धन्यवाद किया । इससे पूर्व प्रोफेसर (डॉ.)दिनेश चमोला ‘शैलेश’ ने उपस्थित विद्वानों का परिचय देकर इस शृंखला के दीर्घ जीवी होने का शुभाशीर्वाद दिया एवं दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा एवं उनकी समस्त टीम को उनके हिंदी प्रेम के लिए हार्दिक साधुवाद दिया। प्रो. चमोला वर्तमान में गढ़ विहार, मोहकमपुर, देहरादून में रहते हैं ।प्रोफेसर (डॉ.)दिनेश चमोला ‘शैलेश’, पूर्व डीन एवं विभागाध्यक्ष, संप्रति- आचार्य एवं कुलानुशासक, उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार